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बिलासपुर 27 अगस्त 2023(KRB24NEWS):

वैश्विक परिदृष्य में आज हमारा देश खेलकूद के मामले में साधारण दिखाई देता है। बीते वर्षों के ओलंपिक खेलों को देखा जाए तो वहां से हम अधिकतर खेलों में खाली हाथ ही वापस आते नजर आते हैं। अपवाद स्वरुप कुछ खेलो जैसे लान टेनिस, कुश्ती, भारोत्तोलन, शूटिंग में ही गिनती के दो चार पदक हमारे देश के हिस्से में आते हैं। हां यह बात अलग है कि गत संपन्न हुए ओलंपिक के भाला फेंक स्पर्धा में व्यक्तिगत रूप से नीरज चोपड़ा ने स्वर्ण पदक लाकर एक इतिहास रच दिया। एक सौ चालीस करोड़ की जनसंख्या वाले देश में ऐसा कोई भी खिलाड़ी ही नहीं है जो अन्य देशों के खिलाडियों से पंगा लेकर पदक ला सके। ठीक ऐसा ही हाल अन्य खेलों के अंतरराष्ट्रीय बड़े आयोजनों में भी है, चाहे वह एशियाई खेल हों या राष्ट्रकुल के खेल स्पर्धा हो या अन्य अंतर राष्ट्रीय खेल हों। इसके सुधार के लिए हमारी खेल व्यवस्था और हमें आज मूलभूत परिवर्तन के साथ गुजरना होगा। तभी तो उक्त परिणामों में भी बदलाव आयेगा और पदकों की संख्या में वृद्धि होगी! आज के परिवेश में युद्ध से नहीं, खेल में पदक लाने से देश की प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। अतः ज़रूरी है कि खेल के स्तर को उंचा उठाया जाए! वैसे भी खेलकूद जो हमारे जीवन का अभिन्न अंग है! जिस पर हमें प्रवीणता हासिल करनी है। रोमांच और विविधताओं से भरी खेली की दुनिया में शिखर पर पहुंचने का सपना हर देश का होता है, कुछ देश जैसे चीन, जर्मनी, जापान, कोरिया, ब्रिटेन, अमेरिका,रूस, फ्रांस, ब्राजील आदि इस मंजिल को पा लेते हैं, और कुछ देशों को प्रायः निराश होकर लौटना पड़ता है। दुर्भाग्य से हमारे देश की गिनती निराश होकर लौटने वाले देशों में होती है। हाल ही में हुए ओलंपिक खेल में भारत का प्रदर्शन बहुत ही साधारण रहा! हमारा देश खेल के क्षेत्र में इतना क्यों पिछड़ता जा रहा है, क्या इस सवाल पर किसी ने कभी ध्यान दिया है ? सरसरी तौर पर देखा जाए तो खेलों कि खराब परिस्थिति के लिय कई कारण नजर आयेंगे। जैसे धन की कमी प्रमुख कारण है। खेल पर हम अपने कुल बजट का आधा प्रतिशत भी खर्च नहीं करते। पैसे के अभाव में खेल सुविधाओं के विस्तार की योजना अधूरी रह जाती है। खिलाड़ियों के पास जब खेलने के लिये आधुनिक सुविधायें ही नही रहेंगी तो फिर वे अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कैसे अपने प्रतिस्पर्धियों के ठहर सकते हैं। वहीं खेल के लिये आवश्यक प्रबंधन ढांचे का अभाव भी एक प्रमुख कारण है,खेल की दुर्दशा का। वस्तुत: खेल के विकास और प्रसार की हमारी अधिकतर योजनाएं दिखावटी ज्यादा हैं। हम अभी तक अपने देश में खेल का एक मजबूत मूलभूत ढांचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर) विकसित नहीं कर पाये हैं। जब तक हम खेलों को गांवों, कस्बों और छोटे-छोटे नगरों तक नहीं ले जायेंगे, तब तक खेल के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर शिखर तक पहुंचने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। इस संबंध में एक उदाहरण ही काफी है कि रूस में राष्ट्रीय खेलों में मोटे तौर पर आबादी का एक चौथाई हिस्सा शिरकत करता है। यहां बहुत निचले स्तर से स्पर्धाएं शुरू हो जाती हैं ,और सुव्यवस्थित रुप से आखिर तक चलती है। हमारे यहां अभी खेलों का ढांचा विकसित ना हो पाने के कारण खेलों में लोगों की भागीदारी बहुत कम है। वहीं चीन जैसा देश जो पिछले कुछ वर्षों में खेल के क्षेत्र में खासी प्रगति कर चुका है। आज अंतर्राष्ट्रीय खेल जगत का चीन एक प्रमुख हस्ती बन चुका है। एशियाई खेलों में तो वह हमेशा ही सिरमौर रहता आया है। यही कारण है कि तात्कालीन केन्द्रीय युवा एवं खेल मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर ने कहा है कि हमे भी खेल में विकसित देशों की तरह सुव्यवस्थित ढांचा खड़ा करना होगा। खिलाड़ियों को निखारने के लिए उन्हें उचित सुविधा व सम्मान देना होगा, तभी शायद हम भी खेल के क्षेत्र में एक प्रमुख हस्ती बन सकते हैं। आज स्थिति यह है कि क्रिकेट को छोड़कर हमारे देश में खेलों के प्रति रुचि और आकर्षण ना के बराबर है। इसका बहुत बड़ा कारण यह भी है कि खेलों की दुनिया ने सफलता के बाद भी इस बात को कोई गारंटी नहीं है कि कोई खिलाड़ी बिना संघर्ष के जीविकोपार्जन कर सके। यह अविश्वास ही खिलाड़ी के आकर्षण को एक झटके में समाप्त कर देता है। हमारे देश में बहुधा यह भी देखा जाता है कि यदि सभी परिस्थितियों से जूझते हुये खिलाड़ी अंततः शिखर पर पहुंच भी गया तब भी हमारे यहां उसे राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्पर्धा में भाग लेने का मौका खोना पड़ सकता है। यही मूल कारण है कि राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण खिलाड़ी अपने प्रदर्शन से ज्यादा फिक्र राजनैतिक समीकरण की करने लगता है। इससे होता यह है, कि खिलाड़ियों का खेल कौशल भी प्रभावित हो रहा है। उनकी योग्यता को नकारने से उनमें कुंठा और निराशा जन्म ले लेती है, जिसका सीधा प्रभाव उनके प्रदर्शन पर पड़ता है। इन्हीं कारणों को देखते हुए मेजर ध्यानचंद सिंह की जयंती पर्व पर आज राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जा रहा है। हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद सिंह ने लगन, दृढ़ता के साथ अभाव में भी अपने खेल को जिस तरह से निखारा और सजाया- संवारा वह अप्रतिम ही है। ऐसे ही उन्हें “हाकी का जादूगर” नहीं कहा जाता है। मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि ना जाने क्यों हमारे देश की केंद्र सरकारों ने उन्हें आज तक “भारत रत्न” की उपाधि से वंचित कर रखा है। यह तो जगत विख्यात है हमारे देश का बच्चा-बच्चा जानता है ओलंपिक में जब तक वे खिलाड़ी के तौर पर हिस्सा लेते रहे उन्होंने हाकी के खेल में स्वर्ण पदकों की लाइन लगा रखी थी। खैर इन सब के बावजूद भला हो यूपी सरकार का जिन्होंने मेरठ स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी को हॉकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद सिंह बैस के नाम पर रखने का निर्णय लिया।

हमारे देश मे खिलाड़ियों के सतत अभ्यास और अच्छे प्रशिक्षण की भी कमी है। प्रशिक्षण सुविधाओं का अभाव तो है ही साथ ही अच्छे प्रशिक्षकों की भी कमी है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में होने वाले खेलकूद महज औपचारिकता बनकर रह गए हैं। खेलकूद का स्तर सुधारने के लिए हम सभी में पूरी निष्ठा का होना बहुत आवश्यक है । बजट प्रावधानों में खेल के लिए खर्च होने वाली राशि में वृद्धि की जाए। तो वही ग्रामीण स्तर वह निचले स्तर पर खेलकूद गतिविधियों को विशेष बढ़ावा दिया जाए। प्रचार-प्रसार माध्यम ना केवल खेलकूद के समाचारों को पर्याप्त महत्व दें, बल्कि इसके साथ ही सफल खिलाड़ियों का हौसला अफजाई भी करें । इस संबंध में सबसे पहली जरुरत एक विस्तृत और सुव्यवस्थित खेल नीति की है। निष्कर्षत: खेलों के विकास के लिये पहली जरूरत एक राष्ट्रीय खेल नीति की है। दूसरी खास जरूरत ग्रामीण क्षेत्रों से क्षप्रतिभाओं को निकालकर लाने रऔर फिर उन्हें तराशने की है। यदि हम ऐसा कर तो निश्चय ही एक दिन हम खेल की दुनिया में काफी ऊपर पहुंच सकते हैं। और वैश्विक खेलों में प्रमुख हस्ती बन सकते हैं। – सुरेश सिंह बैस शाश्वत