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बिलासपुर 4 मई 2024(KRB24NEWS):

सेन जी महाराज ने स्वामी रामानंद जी से दीक्षा लेकर भक्ति मार्ग और मानव सेवा के मार्ग को को अपनाकर मानवता के सेवा में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। इन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार का भी काफी कार्य किया। सेन जी महाराज का जन्म विक्रम संवत 1557 में वैशाख कृष्ण द्वादशी दिन रविवार को वृत्त योग तुला लग्न में हुआ था। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मध्यप्रदेश के उमरिया जिले अंतर्गत बांधवगढ़(सेनपुरा) में हुआ था। आज इनके 718 वीं जन्म जयंती मनाई जा रही है। इनको बचपन में नंदा के नाम से पुकारा जाता था। इनके पिता का नाम श्री चंद और माता का नाम सुशीला देवी था! संत सेन जी का विवाह मध्यप्रदेश के विजयनगर राज्य के राज वैद्य शिवन्या की सुपुत्री गजरा देवी के साथ संपन्न हुआ । इनके दो पुत्र और एक पुत्री मानी जाती हैं। सेन जी महाराज बहुत ही दक्ष और कार्यकुशल थे ।शिक्षा में भी रुचि को देखते हुए बांधवगढ़ के महाराज ने इन्हें अपनी सेवा में रखा था। वहीं यह साधु संतों के सत्संग और समाज कार्य में रुचि भी लेने लगे थे। श्री सेन जी महाराज सत्संग और साधु संतों के सानिध्य में मानव सेवा और शिक्षण के कार्यों में काफी आगे बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगे। साथ ही अपने जीविका उपार्जन के लिए भी राज दरबार में अपनी सेवाएं जारी रखी थी इनके कार्यों से राजदरबार के सभी ओहदेदार और महाराज भी काफी प्रसन्न रहते थे। “राम सीतावली”, में रीवा नरेश महाराजा रघुराज सिंह ने इनके लिए लिखा भी है—– “बांधवगढ़ पूरब जो गायों सेन नाम नापित तह पायों । ताकि रहे सदा यही रीति, करत रहे साधन सो प्रीति । करें सदा तिनकी सेवा का ही, मुकर लगावें, तेल लगाई।। श्री सेन जी महाराज श्री हरि विष्णु ,राम सीता, एवं हनुमान जी की उपासना में हमेशा रत रहते थे। वह सत्संग करते एवं साधु संतों की सेवा में लीन रहकर अपनी रचनाओं यानी कविताओं की कृतित्व में भी रमे रहते।इनकी भक्ति के संबंध में इतिहासकार कहते हैं की बघेलखंड के बांधवगढ़ में एक परम उदार और संतोषी विनयशील सेन नामक व्यक्ति जो नाई जाति के थे, वे निवास करते थे। संत सेन की भक्ति के बारे में यह उल्लेख है कि वह राज परिवार की सेवा के लिए नित्य राजदरबार और राजमहल में आते जाते थे। वे नित्य मेहनत और सेवा करके अपनी आजीविका के साथ साथ साधु संतों की सेवा में तल्लीन रहते थे। राजा और नगरवासी उनकी नि:स्पृहता ,सेवा और सज्जनता से काफी प्रसन्न और उनकी सराहना करते थे! संत सेन रोज सुबह स्नान ध्यान और भगवान की सेवा के पश्चात ही राजभवन के लिए जाते थे। जहां वे राजा और राजवंश के लोगों के कृपा पात्र बनकर उनके बाल बनाना और तेल मालिश पश्चात स्नान कराना उनके नित्यकर्म में था। संत सेन, भगवान के महान कृपा पात्र भक्त और विनय शील परम संतोषी व्यक्तित्व के थे। एक दिन उन्होंने देखा कि एक भक्त मंडली भगवान के नाम की मधुर स्वर में संकीर्तन कर रही है। तब वे अपने आप को रोक ना सके और संकीर्तन मंडली में शामिल व तल्लीन हो गए। इस बीच उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि उन्हें नित्य की तरह अपने राजा महाराज वीर सिंह के कार्य के लिए राजभवन में जाना है। उधर राजभवन में महाराज महावीर सिंह उनके प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। और इधर संत सेन साधु संतों की सेवा भावना में लगे हुए थे। ऐसी विषम स्थिति देखकर के” प्रभु” ने स्वयं सेन के रूप में महाराज महावीर सिंह और राज परिवार के सम्मुख उपस्थित होकर उनके सारे कर्तव्यों को संपादित किया। प्रभु ने संत सेन के रूप में अपने कंधे पर गमछा, कैंची ,दर्पण और अन्य सामानों के साथ पेटी लटका रखी है। उनके मुख पर अलौकिक तेज और विलक्षण मुस्कान विराजमान है। उन्होंने राजा के सिर पर तेल लगा कर ,मालिश कर और फिर दर्पण दिखाकर उन्हें संतुष्ट किया। भगवान लीला बिहारी के मालिश और सेवा से राजा ने असीम संतुष्टि का अनुभव प्राप्त किया। लीला बिहारी के कोमल हाथों से ऐसी संतुष्टि जो उन्हें मिली वह पूर्व में कभी नहीं प्राप्त हुआ था। राजा को लगा कि आज सेन के रूप में कोई अलौकिक शक्ति ही आई है उन्हें महसूस हुआ कि यह तो कोई दिव्य आत्मा है ,जिनके छूते ही उन्हें परम आनंद और संतुष्टि की अनुभूति हुई थी। भक्त और संकीर्तन मंडली के जाने के बाद संत सेन को अकस्मात यह ज्ञात हुआ कि -अरे उन्होंने तो अपने राज दरबार के कर्तव्यों को ही भूल कर भयंकर गलती कर दी थी! महाराज की सेवा में उपस्थित ना होकर उन्होंने बडी भूल कर दी । वे तत्काल राजा की नाराजगी को सोचते हुए अपने सारे साथ समान को उठाकर राजभवन की ओर चल पड़े। राजभवन में जब घबराए हुए संत सेन को सैनिकों ने देखा तो उन्होंने पूछ लिया कि क्या बात है? आप कुछ भूल रहे हैं, या कुछ गलती हो गई कि जिससे आप ऐसे घबराए अवस्था में दौड़े आ रहे हैं! तब उन्होंने सैनिकों को बताया कि मैं आज भक्तों और साधु संतों के संगत में इतना तल्लीन हो गया था कि निर्धारित समय में मैं महाराज की सेवा में उपस्थित ही नहीं हो पाया। और महाराज की नाराजगी के भय में मैं दौड़ा चला आ रहा हूं। तब सैनिकों ने आश्चर्य से भर कर कहा कि सेनजी आप तो कब का आ करके अपना काम कर दिए हैं। आपने तो आज अपने कार्य से राजा को परम संतुष्टि दी जिससे राजा बहुत प्रसन्न है ।और इसकी तो सारे नगर में चर्चा हो रही है। यह सुनकर सेन संत को भारी आश्चर्य हुआ और वे इस बात पर आश्चर्य चकित हो उठे।संत शिरोमणि सेन जी की रचनाए- संत शिरोमणि सेन जी महाराज ने हिन्दी, मराठी, गुरुमुखी और राजस्थानी में सेन सागर ग्रंथ रचा, जिसमें एक सौ‌ पचास गीतों का उल्लेख मिलता है। गुरुग्रंथ साहब में भी सेन जी के कुछ पद संकलित है। संत शिरोमणि सेन जी महाराज आध्यात्मिक गुरू एवं समाज सुधारक के साथ उच्च कोटि के कवि भी थे। पंजाबी भाषा ( गुरूमुखी) में हस्तलिखित सेन सागर ग्रंथ उपलब्ध है। कहा जाता है कि इसकी एक फोटो प्रतिलिपि देहरा बाबा सेन भगत प्रतापपुरा जिला जालंधर पंजाब में सुरक्षित रखी गई है। इसमें दो प्रकार की रचनाए दर्ज है। पहली रचनाओं में संत सेन जी की वाणिया दर्ज है। जिनकी मूल संख्या बैंसठ है। दूसरी रचना सेन जी के जीवन से संबंधित श्रद्धालु भक्त या किसी परिवार के सदस्य द्वारा लिखी गई है। सेन सागर ग्रंथ सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। इतिहासकार एच0एस0 विलियम ने अपने शब्दों में अभिव्यक्त करते हुए कहा था कि सेन संत जी उच्च कोटि के कवि थे। उनकी अलग अलग भाषाओं की रचना उनकी विद्वता को प्रमाणित करती है। उनकी मधुर रचनाऐं तथा भजन बडे मनमोहक व भावपूर्ण थे। सेन जी अपनी वाणी में लिखते है:- ‘ सब जग ऊंचा, हम नीचे सारे। नाभा, रविदास, कबीर, सैन नीच उसारे।। “सेन सागर ग्रंथ में सेन जी भगत रविदास जी साखी”वही येप भगतावली में लिखते है: ‘रविदास भगत ने ऐसी कीनी, ठाकुर पाया पकड अधीनीतुलसी दल और तिलक चढाया, भोग लपाया हरि धूप दवायां सेन दास हरिगुरू सेवा कीनी, राम नाम गुण गाया।।’ इनके साहित्य की सबसे बड़ी उपलब्धि भी गुरूग्रंथ साहिब में आपकी वाणी का दर्ज होना। जिससे आपको बहुत बडा सम्मान प्राप्त हुआ और सेन समाज का भी गौरव बढा है। गुरूग्रथं साहिब में जहां सिक्खों के सभी गुरूओं की वाणिया दर्ज है। वही सभी संतों को इसमें सम्मान दिया गया है। जिसमे रविदास व कवीरदास के साथ साथ सेन जी महाराज भी एक है। सेन जी द्वारा रचित बहुत सी रचनाए गुरूग्रथं साहिब में संग्रहित हैं । संत शिरोमणि श्री सेन जी महाराज ने अपना देह त्याग सन 1440 इस्वी में किया था।