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बिलासपुर 14 मई2022(KRB24NEWS):
भारत के अन्यान्य ऐतिहासिक स्थलों की भांति छत्तीसगढ़ के इतिहास का भी एक स्वतंत्र अस्तित्व है। छत्तीसगढ़ में रतनपुर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी होने का गौरव रतनपुर को प्राप्त है। यहां का इतिहास यद्यपि अनेक किवदंतियों से भरा है, और यही वजह है कि चारों युग में रतनपुर की अपनी एक अलग महत्ता रही है। सतयुग में इसका नाम मणिपुर, त्रेतायुग युग में माणिकपुर, द्वापर युग में हीरापुर और वर्तमान कलयुग में (रत्नपुर) रतनपुर का जगप्रसिद्ध नाम है। रतनपुर के संबंध में त्रेतायुग की एक घटना भी जुड़ी हुई है। | जिसके अनुसार श्री कृष्ण और अर्जुन यहां पधारे थे, उस समय रतनपुर में मयूरध्वज नामक राजा का राज्य था! ताम्रध्वज नामक उनका वीर पुत्र था। उसने पांडवों के अश्वमेध यज्ञ के समय उनके दिग्विजयी घोड़े को. पकड़ लिया था, अर्जुन से उसका घोर युद्ध हुआ। बाद में श्रीकृष्ण ने दोनों में मिलाप करा दिवा, अर्जुन ने तब अनुभव किया कि ताम्रध्वज के प्रति श्रीकृष्ण का विशेष अनुराग है।
तब उसने श्रीकृष्ण को उलाहना दिया कि हे केशव क्या ताम्रध्वज आपका मुझसे भी बड़ा भक्त है क्या ..? जो आप उसे इतना महत्व दे रहे हैं। तब श्रीकृष्ण ने ताम्रध्वज की भक्ति की परीक्षा ली थी। और उन्होंने सिंह से ब्राम्हण बालक की रक्षा के लिए युवराज ने स्वेच्छा से अपने शरीर को चीरवा दिया था। तब उसकी अप्रतिम भक्ति देखकर श्रीकृष्ण ने उसे वरदान दिया । कहा जाता है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन की स्मृति में एक तालाब भी खुदवाया गया था, जिसे आज हम कृष्णार्जुनी तालाब के नाम से जानते हैं। इसी प्रकार एक घोड़ बुंधवातालाब प्रसिद्ध है। वे तालाब उसी जगह बनवाया गया था जहां पर ताम्रध्वज ने अर्जुन के यज्ञ के घोड़े को बांधा था। पौराणिक तथ्वों से एवं ऐतिहासिक तथ्यों से यह परिपुष्ट है। रतनपुर राजा मोरध्वज से लेकर गुप्तवंश कलचुरी, गोड़, है हयवंशी राजाओं सहित मराठों का इतिहास एवं उनकी कर्मभूमि रही है। शायद इसलिए यहां का क्षेत्र पुरातात्विक सामग्री से समृद्ध है। आज भी यहां नित्य पुरातात्विक सामग्री पाये जा रहे हैं। रतनपुर में हैहयवंशी राजाओं के पूर्व चौथी शताब्दी से इतिहास के तथ्य मिलते हैं, जिसके अनुसार वह राज्य दक्षिण कोसल कहलाता था।, बाद में यह दो भागों में विभाजित हो गया। लोगों का विश्वास है कि हैहयवंशीय ही छत्तीसगढ़. के प्राचीन राजा थे। रतनपुर उनकी राजधानी रही। ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि हैहयवंशीय राजाओं का शासनकाल दसवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक अत्यंत महत्वपूर्ण था। ये कलचुरियों के नाम से भी प्रसिद्ध थे।
ये पहले चेदी देश का राज्य करते थे। चेदिराज्य हसदो तक बढ़ गया। बाद में पूरे छत्तीसगढ़ में इनके राज्य का विस्तार हो गया. इस वंश के राजा रत्नदेव ने अपने समय में बड़े-बड़े तालाब और मंदिरों का निर्माण कराया था। इस राज्य ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं। स्वयं रतनपुर जब राजधानी थी, तब उसका नगरीय क्षेत्र बीस पच्चीस किलोमीटर के क्षेत्र तक फैला हुआ था। ऐसा बताया जाता है। उडीस एवं महाराष्ट्र के बड़े भूभाग में भी इनका शासन था। राजा रत्नदेव के बाद तखतपुर के संस्थापक राजा तखतसिंह के युवराज राजसिंह ने सत्रहवीं शताब्दी में एक महल बनवाया। महल के पार्श्व में विशाल तालाब का भी निर्माण करवाया ।जिसे आज भी देखा जा सकता है। आज इस तालाब को रानी तालाब के नाम से पुकारा जाता है। ऐसी मान्यता है कि राजाओं की रानी यहां स्नान करती थी। इस महल के अंदर कई मंदिर भी बनवाए गए थे। जिनमें से एक जगन्नाथ का मंदिर आज भी बहुत अच्छी अवस्था में है और श्रद्धालु पूजन अर्चन करने आते हैं । और कुछ मंदिर जिनके भग्नावशेष आज भी पुराने बस स्टैंड के पास देखे जा सकते हैं। सन 1740 में मराठा सेनापति रघुजी भोंसले ने रतनपुर पर आक्रमण कर विजय हासिल की। इस युद्ध में किले की बहुत क्षति हुई। हैहयवंशीय राजाओं का राज्य बहुत दूर-दूर तक फैल गया था। उनके राज्य का विस्तार सिहावा कौड़िया, सरगुजा, सारंगढ़, दुर्ग, कांकेर और डोंगरगढ़ सहित कर देने वाले रायगढ़, प्रतापगढ़, खरसिया, लाजी, अंबागढ़, करोंद, कालाहांडी, संबलपुर, पटना, सिंहभूमि, चंद्रपुर, सक्ती, रायगढ़ आदि राज्य थे। इन राजाओं की शासन व्यवस्था उत्तम थी। राज्य के प्रमुख शासक दीवान कहलाते थे। प्रत्येक दीवान के अधिकार में एक गढ़ रहता था। प्रत्येक गढ़ में 24 गांव शामिल रहते थे। कुछ बड़े गढ़ 42 गांव वाले भी होते थे। दीवान के नीचे दाऊ का पद था। उसके बाद गौंटिया का पद था। गौटिया गांव का सर्वाधिकार युक्त मुख्य अधिकारी होता था। इनका मुख्य कार्य था। लगान की वसूली करना, न्याय एवं व्यवस्था की देखरेख करना। अपने कार्य से इन्हें राजा से वेतन या कमीशन प्राप्त होता था । रतनपुर अपने आप में अनेक मंदिरो ,तालाबों आदि दर्शनीय स्थलों से प्राचीनता का इतिहास देने में समर्थ बना हुआ है। यहां की ऐतिहासिक भव्यता आज भी अपना सौंदर्य बरकरार रखे हुए हैं। तालाबों, सरोवरों की नगरी श्ररतनपुर में कृष्णार्जन (कन्हार जूनी) दुलेहरा, विक्रमा बनवा तालाब का नाम काविले जिक्र है। ऐतिहासिक व धार्मिक स्थलों में मां महामाया मंदिर, मदारशाह रहमतुल्ला अलैंह, भैरव बाबा मंदिर, हजात मुशा सहीद, रामचंद्रजी का मंदिर रामटेकरी, लखनीदेवी का मंदिर जो पहाड़ी की ऊंची चोटी पर स्थित है। वही एक अन्य पहाड़ी. कका पहाड़ में भी शंकर भक्तमुनी की समाधि है। रामटेकरी पहाड़ी के नीचे वृद्धेश्वर महादेव का सिंह प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। थोड़ी ही दूर पर गिरिजावन नामक अत्यंत हराभरा स्थान है। वहीं पर हनुमान जी का एक प्राचीन मंदिर भी स्थित है। यह मंदिर 1725 विक्रमी संवत को बनवाया गया था। अपनी ऐतिहासिकता से उक्त सभी स्थल आकर्षण एवं भक्ति के केंद्र बने हैं। इसी तरह से यहां शिव पंचायतन मंदिर है, जो एक सुंदर उद्यान के साथ निर्मित है। रतनपुर प्राचीन भारत के अतीत का ज्ञान प्रदान करने में श्रेष्ठ सहायक है। यहां की संस्कृति गौरवशाली है। रतनपुर का जीर्ण शीर्ण प्राचीन व भव्यकिला यहां की प्राचीन कला का ज्ञान कराता है। यहां स्थित बादल महल, कोकोवाणी, रानीमहल आदि रतनपुर की ऐतिहासिक धरोहर हैं। भिन्न-भिन्न संज्ञाओं से अभिनिहित होने वाली पौराणिक नगरी रतनपुर जिसे “लहरी काशी” के नाम से भी पुकारा जाता है। यहां की महामाया देवी का मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं। आज यहां देश-विदेश के कोने-कोने से लोग मातेश्वरी महामाया के दर्शन के लिए नित्य सैकड़ों की तादाद में पहुंचते हैं। और अपनी मनोकामनाएं माता के समक्ष विनत रूप से रखते हैं। अब तो मंदिर बड़ा विशाल एवं भव्य आकार ग्रहण कर चुका है। नवरात्रि पर्व के समय तो यहां की बात ही कुछ निराली रहती है। आपको माता के दर्शन के लिए घंटों लाइन में लगने के बाद ही दर्शन लाभ मिल पायेगा। लाखों की तादाद में लोग यहां पहुंचते हैं। हजारों कलश तेल व घृत के यहां लोगों द्वारा मनोकामना की पूर्ति लिए जलवाए जाते हैं। महामाया का मंदिर बहुत प्राचीन है। इस संबंध में एक ऐतिहासिक तथ्य है जो इस प्रकार है। एक बार राजा रत्नदेव अपनी राजधानी तुमान छोड़कर रतनपुर की ओर शिकार खेलने आ गए। रात हो जाने पर एक बड़ के वृक्ष पर चढ़कर रात बिताने लगे। पर उन्हें क्या पता था कि उसी बड़ वृक्ष के नीचे मां महामाया की सभा हुआ करती थी। सो उस रात्रि को राजा रत्नदेव ने वह सभा स्वयं अपनी आखों से देखा, महामाया ने उन्हें स्वप्न में वहीं बस्ती बसाने की आज्ञा दी. तब राजा ने मां महामाया की आज्ञा को शिराधार्य कर वहीं पर रतनपुर नामक नगरी बसाई और उसे अपनी राजधानी बनाया,।यही रत्नपुर ही आज का रतनपुर है। रत्नदेव ने उस पेड़ के पास स्थित महामाया की मूर्ति को भी खुदवा कर एक भव्य मंदिर बनवाकर वहीं महामाया की पूजा अर्चना के साथ प्राण प्रतिष्ठापन कार्य संपन्न कराया था।
रतनपुर में स्थापित महामाया देवी के मंदिर के अलावा और भी कई प्राचीन मंदिर हैं जो उल्लेखनीय हैं। नगर के पश्चिम भाग में महामाया देवी के पास ही एक ऐतिहासिक मंदिर कंठिटेवल भी है। जो कि भारतीय मुस्लिम शिल्प कला का अप्रतिम उदाहरण है। यहां पर पत्थर के ऊपर की गई कारीगरी दर्शनीय है। यहां का बैराग तालाब अपने रमणीक वातावरण से अपने नाम को सार्थक करता है। ऐसा माना जाता है कि पूर्व में यहां एक हजार के लगभग तालाब होते थे। आज भी एक सौ तालाब से अधिक तालाब स्थित हैं। नगर के पूर्वी छोर पर एक बांध है जो रत्न विलास सरोवर के नाम से प्रसिद्ध है। पर यह बांध अब (खूंटाघाट) खारंग जलाशय के नाम से प्रसिद्ध है। इस बांध से लाखो एकड़ जमीन की सिंचाई होती है। यह बांध जिले के सुरम्य एवं रणीक पर्यटन स्थल के रूप में प्रमुख रूप से अपना स्थान रखता है। रतनपुर में ही हर वर्ष शिवरात्रि के पावन पर्व पर बड़ा मेला लगता है। इस मेले का इतिहास भी रतनपुर इतिहास जैसा ही प्राचीन है।
प्राचीन ऋषि मुनियों के गहन अनुष्ठान, शोध, संधान एवं यज्ञों के आयोजन हुआ करते थे। जिसमें पंचतत्वों के प्रभाव और उनकी मानवहित में गहन जानकारी प्राप्त की जाती थी। इस अवसर पर जन साधारण भी भारी मात्रा में एकत्रित होते थे। यही धीरे-धीरे एक मेला का रूप लेकर आज हमारे सामने प्रतिवर्ष माघी पूर्णिमा के दिन उपस्थित हो जाता है। अब तो मेले का स्वरूप ही बदल गया है। यहां लोग खरीदी बिक्री, मनोरंजन आदि के लिए आते हैं।