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बिलासपुर 17 अक्टूबर 2024 (KRB24NEWS)
हमारा आदि काव्य रामायण कहलाता है, और इस अप्रतिम रचना के रचयिता वाल्मीकि आदि कवि की उपाधि से विभूषित किये गये है। वाल्मीकि रामायण की जब रचना नहीं हुई थी, तब एक समय वाल्मीकि के मुख से अकस्मात ही एक श्लोक का प्रस्फुटन हुआ। तब वे उस श्लोक से ही काव्य की रचना करने के लिये आकुल हो उठे। वे तभी से इसके लिये उपयुक्त विषयों की खोज करने लगे थे। संयोग से तभी देवर्षि नारद उनके आश्रम पधारे। वाल्मीकि ने उनसे पूछा “हे मुनिः इस समय संसार में गुणवान, धैर्यवान, वीर्यवान, धर्मवान, सत्यवान एवं दृढ़वान कौन है? सदाचार से युक्त, समस्त प्राणियों का हित साधक विद्वान, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन पुरुष कौन है? मन पर अधिकार रखने वाला, कोध को जीतने वाला, कांतिमान और किसी की निंदा न करने वाला कौन है? इस पर नारद ने कहा- “मुनिवर, आपनेजिन बहुत से दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है, उनसे युक्त पुरुष को मैं विचार करके कहता हूँ आप सुनें! इक्वाच्छु वंश के उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं जो लोगों में राम नाम से विख्यात हैं, वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबली कांतिमान, धैर्यवान और जितेंद्रिय हैं। इसके अतिरिक्त नारद ने दशरथ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी से लेकर रावण वध एवं उनके अयोध्या लौटने सिंहासनारुढ़ होने तक की सारी कथा वाल्मीकि को कह सुनाई। बस वाल्मीकि आत्मविभोर होकर कालांतर में इसी कथा को काव्यबद्ध कर कालजयी रचना “रामायण,” की रचना कर सकने के अधिकारी हुए। आधुनिक शोधकर्ताओं में मतांतर रहा है इस बारे में! सुप्रसिद्ध लेखक कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर का कहना है कि “रामकथा संबंधी व्याख्यानों की रचना वैदिक काल के बाद इक्वाच्छु वंश के सूत्रों में की है। वहीं ऋग्वेद का समय विभिन्न विद्वानों ने 6000 ईश्वी पूर्व से लेकर 15000 ईश्वी पूर्व तक का अनुमानित किया है। आदि रामायण का रचनाकाल सामान्यतः 500 ई.पू. माना जाता है। इन दोनों की अर्थात रामायण आदि रामायण का रचनाकाल सामान्यतः 500 ई.पू. माना जाता है। इन दोनों की अर्थात रामायण तथा ऋग्वेद के बीच पाँच, 6000 वर्षों के बीच राम संबंधी आख्यान काव्य का क्रमशः समयोपरांत विकास होता गया । इसी आख्यान काव्य को च्यवन ऋषि ने काव्यबद्ध करने का प्रयत्न किया था किन्तु सफल नहीं हो पाये! इसका प्रमाण हमें अश्वघोष कृत बुद्ध चरित के इस श्लोक से मिलता है। वाल्मीकि रादौ च समर्ज पद्यं ।ज़ग्रंथ बन्न च्यवनो महर्षिः ।। वाल्मीकि मृगुवंशी थे। इनका प्रकृत नाम ऋक्ष था। वाल्मीकि इनका कुल नाम था। रत्नाकर डाकू के साधु बन जाने “मरा मरा” जपने तथा वाल्मीकि से पुकारे जाने की कथा बाद में कल्पित की गई है। इस कथा का प्रथम उल्लेख अध्यात्म रामायण में हुआ है, जिसका निर्माण 1500 ई. के आसपास माना जाता है। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत एकनाथ ने अपने ग्रंथ भावार्थ में रामायण के अरण्यकांड में अध्यात्म रामायण को आधुनिक ग्रंथ माना हैं। डॉ. बुल्के (शोधवेत्ता) का मत है कि महाभारत की दो कथाओं के संयोग से अध्यात्म रामायण की इस कथा को रुप मिला है। इनमें से एक कथा अरण्य पर्व की है जिसके अनुसार च्यवन ऋषि का शरीर वाल्मीकि से आच्छादित हो गया था। और उन्होंने मुझे यह कहकर पाप मुक्त कर दिया कि तेरा यश श्रेष्ठ होगा। (रामकथा पृष्ठ 38-39 में यह उद्धरण है)। कृतिवास कृतं बंगाली रामायण में वाल्मीकि का नाम रत्नाकर तथा उन्हें च्यवनपुत्र कहा गया है। इसमें कृतिवास ने डाकू रत्नाकर संबंधी कथा के वाल्मिकी को मृगुवंशी वाल्मीकि मानकर उन्हें च्यवन ऋषि का पुत्र लिख दिया है। वाल्मीकि मृगुवंशी तो है, किंतु वे च्यवन के पुत्र थे या नहीं यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता। क्योंकि अन्य शोध जन्य तथ्य यही सिद्ध करते हैं कि वाल्मीकि से बहुत पूर्व ही राम आदर्श मानव, आदर्श वीर एवं आदर्श राजा के रुप में प्रतिष्ठित हो गये थे। राम का आख्यान काव्य भृगुवंशियों में दीर्घकाल से विकसित होता चला आ रहा था। उसे काव्यबद्ध करने में च्यवन ऋणि असफल रहे थे। वंश परंपरा मे यही कार्य वाल्मीकि को प्राप्त हुआ और उन्होंने उसे काव्यबद्ध करने का’ सकल प्रयत्न किया। इसके विपरीत नारद प्रसंग की ध्वनि यह है कि वाल्मीकि के समय तक राम की ख्याति विश्व विश्रुत नहीं हुई थी। उनके जीवन कार्यों से वे परिचित नहीं ये तथा नारद से पूर्ण विवरण प्राप्त होने पर उन्होंन रामकथा को काव्यबद्ध कर राम के राज का प्रचार किया। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि नारद प्रसंग का राज्मीकि रामायण में उल्लेख एक सुविचारित तथा उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही हुआ होगा। संस्कृत का प्रथम काव्य रचने के कारण वाल्मीकि का व्यक्तित्व विशेष आदर और गौरव से समन्वित हो गया था। उनके चारों ओर दिव्यता का मंडल प्रादूर्भूत होने लगा था। उनके प्रति श्रद्धा और आदर का अतिरेक प्रवाहित हो चला था। फलस्वरुप उन्ही को रामकथा का आदिवक्ता बनाने तथा उसे पूर्ण प्रामाणिकता से परिवेष्टित करने के लिये उन्हें राम का समकालीन ‘बनाने का प्रयत्न हुआ। इसीलिये नारद प्रसंग की कल्पना की गई। कालांतर में नारद प्रसंग का उद्देश्य सिद्ध हो गया। लोग आख्यान काव्य का अस्तित्व ही भूल गये। रामायण की कथा का आधार रामसंबंधी आख्यान काव्य न रहकर वाल्मीकि के प्रति नारद का कथन ही मान्य हो गया। अग्नि पुराण में वर्णित है कि-रामायण मह लक्ष्ये नारदे नोदित पुरा।वाल्मीकिय यथा तद्धत्पठितं भुक्तिमुक्तिदम् ।।राम और वाल्मीकि की समकालीनता का स्पष्ट उल्लेख पदम्पुराण के पाताल खंड के अयोध्या अध्याय (1100-1200 ई.) में भी हुआ है। यहाँ कहा गया है कि वाल्मीकि ने स्वयं राम को अपना काव्य सुनाया था” ततः स वर्णया मास राघवं ग्रंथ कोटिभिः। हाकाकार नागेश लिखते हैं कि महामुनि वाल्मीकि ने 100 करोड़ श्लोकों को रामकथा में लिपिबद्ध किया था। किंतु वह सारी की सारी ब्रम्हलोक चली गई, केवल लव- कुश द्वारा उद्धृत 24000 श्लोक ही उसमें से बच सके, जिन्हें संप्रति वाल्मीकि रामायण के रुप में जाना जाता है। (यह संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ 222-वाचस्पात गैरोला में स्पष्ट है). गोस्वामी तुलसी दास ने “रामायण सत कोटि अपारा” लिखकर इसी मान्यता का समर्थन किया है। यह वाल्मीकि के स्त्रष्टा रुप का अत्यंत विराट एवं गरिमापूर्ण वह चित्र है जिसमें उनके कृतित्व की सीमा चौबीस हजार से सौ करोड़ श्लोकों की कर दी गई तथा उन्हें भारत ही नहीं ब्रम्हाण्ड का आदि कवि बना दिया गया। इसके बाद ही वाल्मीकि का दृष्टा रुप सामने आता है।
– सुरेश सिंह बैस” शाश्वत”