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कोरबा 29 जुलाई ( KRB24NEWS ) : कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, कटघोरा द्वारा 28 जुलाई को विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम का शुभारंभ कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता डाॅ. एस.एल.स्वामी के द्वारा किया गया। वीडियो काॅन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आयोजित इस कार्यक्रम में महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के विभिन्न छात्र छात्राओं, वैज्ञानिकों, प्राध्यापकों ने आॅनलाइन के माध्यम से भाग लिया तथा प्रकृति के संरक्षण के लिये प्रेरित हुये। कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र में डाॅ. स्वामी, द्वारा अपना व्याख्यान प्राकृतिक संसााधनों के संरक्षण एवं मानव विकास विषय पर दिया गया। उन्होंने बताया की कई प्राकृतिक संसाधन समाप्ति के कगार पर है एवं कुछ तो सदैव के लिए लुप्त हो गये हैं। जहां तक भारत की बात है तो हमारी भारतीय संस्कृति में निहित अवधारणायें कितनी उपयोगी एवं सबल हैं कि उनका पालन कर हम प्रकृति का संरक्षण कर सकते हैं और कर भी रहें हैं। कोरोना ने विश्व की गतिविधियों को जिस तरह से रोक दिया है उससे पर्यावरण के कारकों में काफी सुधारात्मक लक्षण देखने को मिल रहे हैं। इससे इस बात की पुष्टि होती जा रही है। की हम प्रकृति के कारकों से जितना ही कम छेड़ छाड़ करेंगे, पर्यावरण उतना ही सुरक्षित रहेगा। हमारी संस्कृति में ही माता भूमिः पुत्रों अहम् पृथ्विव्याः की अवधारण निहित है। जिसके तहत हम पृथ्वी को अपनी माता मानते हैं और अपने को पृथ्वी का संतान। इस संकल्पना के तहत् हम पृथ्वी पर विद्यमान प्रकृति के तत्वों की रक्षा करते हैं। हम पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगते हुये अपनी मूल अवधारणा को भूलते गये और असंतुलित विकास के लिए प्रकृति के संसाधनों का अतिशय दोहन एवं शोषण से करते हुये प्रकृति संतुलन बिगाड़ रहे हैं और हमारे ऊपर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। उन्होने यह भी बताया की अपनी सनातन भारतीय संस्कृति की अवधारणा को अपनाते हुए विकास की दिशा सुनिश्चित करें। जिससे विकास भी हो और प्रकृति भी सुरक्षित एवं संतुलित रहे और हमें प्रकृतिक संरक्षण में नवीकरणीय संसाधन या नव्य संसाधन जैसे ऊर्जा, मिट्टी, जल, वन, एवं विलुप्त होती प्रजातियों को बचाने एवं सुरक्षित रखने पर बल दिया

कार्यक्रम में डाॅ. आर.के. प्रजापति, प्राध्यापक वानिकी इं.गा.कृ.वि.वि. रायपुर द्वारा अपने व्याख्यान में बताया की प्रकृति में अनेक प्रकार के जीव जंतु रहते हैं। जो पारिस्थितिक तंत्र के अनुरूप विकसित हुये हैं और उनका जीवन समान्य रूप से चलता रहता है। 100 साल पहले बाघ को उसके प्राकृतिक आवास में देखना आसान था। उनमें से लगभग एक लाख पूरे एशिया में घूमते थे। जिसमें कई उप जातियां भी शामिल थी जो अब विलुप्त हो चुकी हैं। आज जंगली बाघों की संख्या लगभग तीन हजार हैं और यह प्रवृत्ति जारी रही तो बाघों का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। आईयूसीएन रेड सूची के अनुसार बाघ एक विलुप्त प्रदाय जानवर के रूप में सूचीबद्ध है। इस प्रजाति के अंतर्गत आने वाले प्रमुख जाति खतरे में है। (अवैध शिकार निवास स्थान का विनाश अपर्याप्त शिकार इत्यादि है।) बाघों को इनके खाल हड्डियों के लिए भी मार दिया जाता है। इसलिए भी बाघों की संख्या में गिरावट आई है। यही कारण है कि अगर हम इन जानवारों को एक स्थायी भविष्य के लिए एक शाॅट देना चाहते हैं तो बाघ संरक्षण प्रयासों की आवश्यकता है।
कस्तुरी मृग दक्षिण एशिया के पहाड़ी क्षेत्र में विशेष रूप से हिमांचल के वनों और अलपाइन स्क्रब आवासों में रहते हैं। आमतौर पर कस्तुरी मृगों की आबादी कस्तुरी के लिए अधिक शिकार और अतिक्रमण के कारण आवासीय स्थान घट रही है। हालांकि कानूनों और विनियमों की एक श्रृंखला शुरू की गई है और इस जानवारों के लिए कई प्राकृतिक भंडार चिड़ियाघर और राष्ट्रीय उद्यान स्थापित किये गये हैं। इसलिए प्राकृतिक तंत्र के प्राकृतिक वैभव की रक्षा करने और पृथ्वी पर प्रत्येक जीवित प्राणी के साथ सह-अस्तित्व की प्राणाली विकसित करने पर विशेष जोर देना चाहिए।

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